शिनाख्त

बस कुछ बरस बीते
कि जब ये ज़िन्दगी ऐसी न थी
हर बात पर यूं आह भरना
काश कहना यूं न था
ये बुझी आखें
हथेली का पसीना
सब नया है
ये बस खुद में छुपे रहना
गुज़रना याद के पन्नों से गुपचुप
और रोज़ करना गुज़रे सालों का हिसाब
ये आदतें ताज़ी नहीं
तो ज्यादा बासी भी नहीं हैं
जब से लौटा हूँ
मैं वक़्त के नाशाद टुकड़े से गुज़रकर
ना जाने क्या था क्या हो गया हूँ
मैं अपनी शक्ल में आवाज़ में अंदाज़ में
कुछ ढूंढता हूँ
कुछ तो मिले पहले सा, अपना सा
पहचाना हुआ सा
मैं घंटों झांकता हूँ शीशे में बड़ी हसरत लिए
मगर मैं हर दफा नाकाम रहता हूँ
न ही ये याद आता है
कि इसके पहले क्या था मैं
न सूरत याद है अपनी
न कोई पहचान बाकी है जेहन में
सभी कुछ धुल गया है
वक़्त के दरिया में बहके
एक आख़िरी तरकीब सूझी है मुझे अब
कैसा हो कि तुम घर आओ शिनाख्त करने मेरी
कि तुम ही ने देखा था आख़िरी बार मुझे
कि जब मैं 'मैं' था वही पहले सा
पहचाना हुआ सा
मैं कैसा था तुम्हे तो याद होगा न !