काश कि..

काश कि मैं इक शायर होता
लिखता आंसू की सियाही से
दर्द भरी कुछ नज्में और मैं
कह देता हाले दिल अपना
सियाही सब खाली कर देता

काश कि मैं इक बादल होता
खूब गरजता खूब बरसता
बूँद बूँद कर खूब बिखरता
गली सड़क नदियों नालों में
जब तक ख़त्म नहीं होता खुद

काश कि मैं बस इक दिन होता
सूरज के संग उगता फिर मैं
धूप में जलता शाम में ढलता
ज़ल्दी से बूढा हो जाता
रात अंधेरी कब्र में सोता.