शतरंज का एक प्यादा

जब से जागा है वो, बहुत हैरान है
ये काला सफ़ेद बोर्ड उसे अब अच्छा नहीं लगता
न ही अपनी ये घिसी पिटी सी चाल
यकीनन अब वो आजिज़ आ चुका है इस खेल से
उसका ज़रा भी मन नहीं लगता यहाँ अब
उबासियाँ लेता है दिन भर
खाली बैठा आकाश में बादलों को उड़ता देखता है
और अभी दो चालों के बीच के खाली वक़्त में
वो सोच रहा है की कब वो पिटे
और बाहर निकले इस मनहूस बोर्ड से
फिर जब उसकी ओर किसी का ख्याल नहीं होगा
वो इस बोर्ड से इतना दूर चला जाएगा
कि उसे दूसरी बाजी के लिए नहीं खोजा जा सकेगा
फिर वो अपने लिए एक ऐसी दुनिया तलाशेगा
जहां कोई काले सफ़ेद खाने नहीं होंगे
और जहां वो अपने मन की चालें चल सकेगा.