कबाड़खाना

जिन्दगी के कबाड़खाने में जमा होते रहते हैं
टूटे फूटे सपने, उधडी हुई उम्मीदें और यादों के मकड़जाल
जिन्हें साफ़ करने की न तो मुझे हिम्मत है और न वक़्त
अग्रीमेंट अभी लंबा है यहाँ पर मेरा
और कोई दूसरा ठिकाना भी नहीं रहने का
जैसे तैसे हर रात सरकाता हूँ ख़्वाबों का कबाड़
और थोड़ी जगह बन जाती है बमुश्किल सोने की
और सुबह होते ही कूड़े से भरी मेज़ पर जम जाता हूँ
उम्मीदों का फटा हुआ लूडो लेकर
एक खारी कॉफ़ी पीता हुआ मैं करता हूँ इंतज़ार
सुबह के शाम और शाम के रात होने का
मैंने कपड़े नहीं बदले महीनों से और नहाया भी नहीं
या शायद सालों से ठीक से याद नहीं
कैलेण्डर पर जमा हैं धूल की परतें
कुछ धुंधला सा दिखता है जो बहुत गौर से देखो
और इतना गौर करने की मेरे पास कुछ वज़ह भी नहीं
घड़ी भी बंद है घर की न जाने कब से
मैंने कई बार सेल बदले मशीन बदली खोला बांधा भी इसे
पर सुईयां हिलती ही नहीं, अड़ियल हैं, जमी बैठी हैं
जहां थम गयी थीं एक दिन अचानक यूं ही चलते चलते !