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ख्वाहिशें जैसे कि हों बिन सीढियों की छत
और झील भर आंसूं में दो उम्मीद की बतखें
वक़्त की बारिश ने सारे रंग बहा डाले
बदशकल सा शख्स आईने में दिखता है
तुम जो लौटोगे मुझे पहचान लोगे ना
धूल सी यादें जमा हैं फर्श पर मेरी
पैर छपते हैं मैं इनसे जब गुजरता हूँ
कल रात फिर कदमों से एक कविता लिखी मैंने.

Categories:
poetry