शाम-सुबह

है शाम सी सुबह तो क्या
उजाला कम ही अच्छा है
ये चुभता भी नहीं आखों में
और ख्वाब के गॉगल पहनने की ज़रुरत भी नहीं

जियो एक सांस में और ख़त्म हो
ये किस्सा है बड़ा बोझिल
क्यूं लंबा खीचना इतना
जो सुन ले बोर हो जाए, जिए जो, वो सज़ा भुगते

भरे हैं याद के गोदाम पहले ही
छांटने बीनने का भी वक़्त नहीं
कहाँ रखोगे जो लम्हे और लाये
गठरियाँ लादकर ये पीठ पर घूमोगे कब तक

होंठ थक गए मुस्कुराकर
आँख रोकर सूख गयी
इंसान हो या ड्रामे का किरदार कोई
इक उम्र है जज्बात की भी, बुढ़ाता जिस्म ही है क्या!