न्यूटन का जडत्व का नियम और हमारा समाज

मम्मी एकदिन अखबार में एक खबर पढकर हंस रही थीं. खबर थी, कांशीराम का मंदिर बनेगा. मैंने कहा, कांशीराम ने लोगों को हक दिलाने के लिए बड़ी लड़ाई लड़ी. सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया. तो उनका मंदिर बनाकर पूजा करने में क्या बुराई है. बोलीं, तो उनकी मूर्ती बनाकर पूजा करने से क्या होगा. किसी ने अच्छा काम किया था तो उसके कामों का अनुसरण किया जाए, मंदिर बनाकर पूजा पाठ करने से क्या होगा. मैंने कहा, ऐसे तो राम भी थे. कुछ अच्छा काम किया था. तो उनके कामों का अनुसरण करना चाहिए. उनकी मूर्ती लगाकर पूजा करने से क्या लाभ.

काफी देर की बहस के बाद वो मुझसे काफी हद तक सहमत भी हो गयीं. लेकिन वो आज भी मंदिर जाती हैं. मंदिर, पूजा पाठ उनके लिए एक परम्परा है. एक भ्रम है, जिसमें वो जीती रहना चाहती हैं.
यही हाल हमारे दौर के लोगों का है. उनमे से ज्यदातर इतने वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण हो चुके हैं. कि धार्मिक परम्पराओं की मूर्खता को आसानी से महसूस कर सकते हैं. लेकिन वो इस भ्रम के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं. कि छोडना नहीं चाहते. न्यूटन का जडत्व का नियम कहता है, कोई भी वस्तु अपनी स्थिति में परिवर्तन का विरोध करती है. यही हाल इस दौर के लोगों का है. वो थोड़ी सी हिम्मत जुटाने से डरते हैं कि हवा के विपरीत चल सकें. अकेले चलने का साहस नहीं जुटा पाते या यूं कहें कि पुरानी आदतें नहीं छोड़ पाते.

कहते हैं, जब किसी जगह लंबे अरसे तक रहो तो वो जगह तुममें रहने लगती है. वैसे ही सदियों से धर्म जाति के पिंजरों में रहते रहते ये पिंजरे हममें रहने लगे हैं. किसी का पिंजरा थोड़ा बड़ा है किसी का छोटा. किसी का पिंजरा सैकड़ों साल पुराना है. किसी का हज़ारों साल. पर नए पुराने और छोटे बड़े से क्या, है तो आखिर पिंजरा ही. हमने जमीन आज़ाद करा ली, शहर आज़ाद करा लिया, देश आज़ाद करा लिए. पर जब हम पिंजरे के अंदर ही बैठे हैं तो फायदा क्या देश की आज़ादी का. हमारे देश की सीमाएं कितनी भी विस्तृत हो जाएँ. हमारी सीमाएँ तो उतनी ही हैं, पिंजरे भर की. (फेसबुक पर एक स्टेटस अपडेट)