'हिंसा' या 'विकल्पों की अनुपस्थिति' ?

मैं इस बारे में विचार करना चाहता हूँ कि हिंसक क्रांतियां होती ही क्यों हैं. क्यों लोग आसानी से सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़ते हैं मरने मारने के लिए. सोचना होगा कि उस हालात में उनके पास एक सहज जीवन की कितनी संभावनाएं बची होती हैं कितना भविष्य उपलब्ध होता है और जितना होता भी है उसकी भी उपेक्षा करके वो हिंसा के मार्ग पर क्यों बढ़ जाते हैं. ध्यान देने की बात है, जिनके हाथों में बंदूकें नहीं हैं वो शांतिप्रिय मिडिल क्लास के लोग भी अपनी फिल्मों में खलनायकों को गोलियों से भून रहे होते हैं. बड़े परदे पर कभी गुंडे, कभी भ्रस्ट अधिकारी और नेता ईमानदार नायक की प्रतिहिंसा का शिकार हो रहे होते हैं और लोग ये सब देखकर अपनी दमित भावनाओं की तुष्टि कर रहे होते हैं. कुछ समय तक तो ऐसी फिल्मों की बहुतायत थी (रिअलीस्टिक सिनेमा के प्रचलन के पहले तक) . ऐसा शायद इसलिए होता होगा कि लोगों को व्यवस्था पर कोई विश्वास और आस्था नहीं रह जाती होगी. 

मेरे भी इतने सारे कटु अनुभव हैं बचपन से अब तक कि तमाम वर्गों के प्रति मेरी संवेदनशीलता अपेक्षाकृत काफी कम हो गयी है. माफ कीजियेगा मगर ये सच है कि मुझे नेताओं के मारे जाने का उतना अफ़सोस नहीं हुआ जितना कि आम जनता के मारे जाने पर होता. मुझे पुलिस वालों से सरकारी अधिकारियों से, तमाम तरह के दलालों से और विभिन्न धर्म और समाज के ठेकेदारों के प्रति भी मैं अब उतना संवेदनशील नहीं हूँ. और तमाम बार इनमे से कई का अंत हो जाए ऐसा सोचने भी लगता हूँ क्योंकि मुझे कोई तरीका नहीं दिखता इनसे निजात पाने का. सिस्टम पर भरोसा करना कठिन है. फिर विकल्प क्या बचता है. 

गांधी ने कहा था कि हिंसा अंतिम विकल्प है. खास बात ये है कि मैं इस सवाल को अवाइड कर सकता हूँ. बचकर निकल सकता हूँ क्योंकि मुझे आखिरकार रोजी, रोटी मिल रही है, दवाई दारू भी करा सकता हूँ, बीमार होने पर. सम्मान से ही समझौता करना पड़ता है. पर वो जो अवॉइड नहीं कर सकते. जिनकी रोजी, रोटी भी दांव पर लग जाती है, जिंदगी सिस्टम के जले में फस कर दम तोड़ने लगती है, वो क्या करें. जो इतना फसे हुई है कि उन्हें या तो हार माननी है या लड़ना है. अब अगर वो हार मानने से इनकार कर दें तो. 

अब ये सही है या गलत इसका फैसला तो बाहर बैठ कर ही कर सकते हैं. उनके लिए ये सही-गलत नहीं है, इतना तय करने का स्पेस हो तो वो भला क्यों हिंसा करें, ये तो उनका अंतिम विकल्प है. हमारे पास स्पेस है. हमारे हाथ में मेन्यू कार्ड है. उनका क्या जिनसे मेन्यू कार्ड छीन लिया गया है. वो निर्णय नहीं ले सकते. उन्हें तो बस कोई भी विकल्प चाहिए. मैं हिंसा का पक्ष नहीं ले रहा. मैं तो विकल्पों की अनुपस्थिति पर शोक व्यक्त कर रहा हूँ.