धर्म और राजनीतिक दल

धर्म, जाति, परम्परा, संस्कार और मर्यादा से मुक्ति की बात इसलिए ज़रूरी नहीं है कि ये बहुत बुरे हैं. इनमे कुछ बातें हितकर भी हो सकती हैं. पर इनका त्याग इसलिए ज़रूरी है कि इनके होते हमारी आँखें बंद हैं. हमारी दृष्टि निरपेक्ष है ही नहीं. हमने खुद फैसले लेना सीखा ही नहीं. न तो हम में खुद फैसले लेने की आदत बची है ना ही हिम्मत. हम बस दूसरों के पहनाए चश्मे से दुनिया को देखना चाहते हैं. इस्तेमाल न होने से हमारी आखें सूख कर खराब हो गयी हैं. संवेदनाएं मर गयी हैं. सही गलत की पहचान खतम हो गयी है. हम उन नियमों का अनुसरण कर रहे हैं जिनके अनुसरण का फैसला हमने किया भी नहीं था.
मैं हिन्दू हूँ क्योंकि मेरे पिता हिन्दू हैं. मेरे पिता हिन्दू हैं क्योंकि मेरे बाबा हिन्दू थे. मेरे बाबा हिन्दू थे क्योंकि उनके पिता हिन्दू थे. इन धर्मों से अच्छी तो राजनीतिक पार्टियां हैं. जिसके पिता कांग्रेसी हों, उसका बेटा भाजपाई हो सकता है. उसका नाती (पोता) समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर सकता है. या चाहे तो राजनीति से दूर हो रह सकता है. अब आप ही बताइये क्या इतने भ्रस्ट होते हुए भी ये राजनीतिक पार्टियां इन धर्मों से बेहतर नहीं हैं? आप पर ढेर भर नियम क़ानून भी नहीं. कि बुर्के की तरह पार्टी की वर्दी पहननी पड़े, व्रत की तरह सबको अनशन रखना पड़े, मंदिर मस्जिद की तरह पार्टी ऑफिस जाना पड़े, भगवानों की तरह नेताओं की पूजा करनी पड़े. काश इतनी आज़ादी हमें धर्म भी देते. और काश कि नॉन पोलिटिकल लोगों की तरह ज्यादातर लोग नॉन रिलीजियस होते. काश....! (फेसबुक से)