मुबारक हो ! अब कार्टून बनाना देशद्रोह नहीं है !!

आखिरकार, ढाई साल बाद उच्च न्यायालय ने मान लिया है कि कार्टून बनाना देशद्रोह नहीं है. उम्मीद है अब मुझे अपने देश प्रेम के लिए सबूत जुटाने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी और मैं निश्चिंत होकर सरकार और व्यवस्था की आलोचना यूं ही जारी रख सकूंगा. निश्चित तौर पर इसे एक जीत की तरह देखता हूँ. अपनी ही नहीं उन सबकी भी जिन्होंने मेरी गिरफ्तारी के दौरान सोशल मीडिया पर ही नहीं सडकों पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का नारा बुलंद किया और एक आन्दोलन सा खडा कर दिया. कार्टून्स को लेकर देशद्रोह का आरोप लगाने को लेकर एक बड़ी बहस खडी हो गयी और चाहे अनचाहे सरकार को बैकफुट पर जाना पडा. वरना कोई मुश्किल नहीं कि शायद मैं आज भी महाराष्ट्र की किसी जेल में सड़ रहा होता और मुझ पर लगे आरोपों और उनके औचित्य की ये बहस बस अदालत के एक छोटे से कमरे तक सिमट कर रह जाती. तब कोर्ट में खुद को डिफेंड करने के लिए वकील की फीस का जुगाड़ करना शायद मेरे जीवन की एक नियमित रस्साकसी बन गया होता. इसका श्रेय जाता है एडवोकेट संस्कार मराठे को, जिन्होंने ये पीआईएल डालकर मुझ पर लगे देशद्रोह के आरोप पर सवाल खड़े किये जिससे मेरे वकील न लेने के फैसले के बाद भी मेरी रिहाई की राह खुल सकी. मैं शुक्रिया अदा करना  मिहिर देसाई और विजय हीरामथ का जिन्होंने इस केस में मुझे रिप्रेसेन्ट किया और बिना किसी आर्थिक फायदे के मेरी और मेरे कार्टून्स की आज़ादी की कानूनी लडाई लड़ी. हांलांकि शुरुआत में मैंने वकील रखने से इनकार कर दिया था, लेकिन आगे की कानूनी प्रक्रिया बिना वकील के संभव नहीं हो पाती.


हांलाकि, व्यक्तिगत रूप से ये फैसला मुझे राहत देने वाला है लेकिन बेहतर होता अगर देशद्रोह की सामयिकता पर भी कोइ विमर्श हुआ होता और अदालत ये महसूस कर पाती कि राजद्रोह जैसा आरोप राजशाही तक ही ठीक है, लोकशाही में ऐसे क़ानून के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, जो सत्ता को राजा और जनता को प्रजा मानकर न्याय करे. इस क़ानून के औचित्य पर अभी भी एक व्यापक बहस शुरू होनी बाकी है. और इसकी ज़रुरत इसलिए है क्योंकि जब तक ये क़ानून संविधान में रहेगा, इसका मिस यूज़ रोकना कतई संभव नहीं हो पायेगा. बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि ये एक ऐसा क़ानून है जिसका ज़्यादातर गलत इस्तेमाल ही होता आया है. कभी किसी स्पीच, कभी किसी आर्टिकल, कभी किसी नाटक तो कभी किसी गाने के लिए कलाकारों की रचनात्मकता देशद्रोह के आरोप में लपेटी जाती रहती है. जब भी किसी ने कठोर शब्दों में सरकार और व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठायी है. यही हाल हुआ है.

ऐसा भी नहीं, कि मेरे कार्टून्स की कानूनी लड़ाई पूरी तरह ख़त्म हो गयी है. आईटी एक्ट का सेक्शन 66 A और नेशनल इम्बेलम एक्ट की धाराओं को लेकर मामला अभी भी विचाराधीन है. देखना है कि अंतिम रूप से अदालत कार्टून्स और अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर क्या राय बना पायेगी और किस नतीजे पर पहुच पायेगी. सच मानिए तो इस देश में कभी फ्री स्पीच को लेकर भी एक व्यापक बहस नहीं हुई है. बात सिर्फ तब उठती है जब कोइ कलाकृति बैन होती है. दोनों तरफ के तर्क दिए जाते हैं बहस बेनतीजा ख़त्म हो जाती है. ज़रुरत है समाज को और सरकार को ये समझा पाने की कि कोइ भी आज़ादी तभी तक आज़ादी है जब तक वो एब्सल्यूट हो. लिमिटेड आज़ादी जैसी कोइ आज़ादी नहीं हो सकती. या यूं कहिये कि पिंजरे का आकार कितना भी बड़ा क्यूं न हो. कैद तो कैद ही रहेगी. हमें समझना होगा कि गैलीलियो जब पहली बार चर्च के खिलाफ आवाज़ उठाता है और कहता है कि धरती चपटी नहीं गोल है और धरती का चक्कर सूरज नहीं बल्कि सूरज का चक्कर धरती लगाती है, तब वो अन्धकार और अज्ञान के युग के बाहर वैज्ञानिक युग की ओर पहला और मजबूत कदम उठाता है. नब्बे फीसदी लोगों की भावनाएं आहत होती हैं. लेकिन एक तर्कपूर्ण समाज की स्थापना के लिए अभिव्यक्ति की ये आज़ादी नींव का पत्थर साबित होती है. अम्बेडकर जब देवताओं की वाणी कहे जाने वाले वेदों और उपनिषदों में घोषित वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं और दलित समुदाय के लिए बराबरी का दर्ज़ा मांगते हैं तो वो नब्बे फीसदी धर्मभीरू हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुचाते हैं. पर बिना ये भावनाएं दुखाये दलितों के लिए बराबरी का दर्ज़ा नहीं माँगा जा सकता. इसलिए हमें समझना होगा कि भावनाएं आहत करना ज़रूरी है.

ये वो समाज है जहाँ गोडसे और गांधी की किताबें साथ बिकती हैं. किसी विचार का दमन नहीं है. सब पाठकों पर है कि वो किसे पढ़ें, किसे ठीक समझें और किसे गलत. ऐसा ही कार्टून्स के बारे में है, किताब के बारे में है या सिनेमा के बारे में. सिर्फ इसलिए किसी कलाकृति को बैन करना कि वो कुछ लोगों की भावनाओं को चोट पहुचाती है. निश्चित तौर पर बेहूदा कदम है. जबकि हम अआनी से ये जनता पर छोड़ सकते हैं. प्रतिबन्ध की राजनीति वही समाज अपना सकता है जो अपने नागरिकों के निर्णय क्षमता पर भरोसा नहीं करता. और ये अविश्वास हमें किस दिशा में ले जा रहा है इसका आंकलन बीबीसी के डाक्यूमेंट्री पर लगे बैन के सन्दर्भ में आसानी से किया जा सकता है. कोई मुश्किल नहीं, कल कोइ महज इसलिए देशद्रोह के आरोप में लपेट दिया जाए कि उसने ऐसी डोक्युमेंट्री देखी या दिखाई जिससे देश के सम्मान को चोट पहुचती है. देशद्रोह का क़ानून बहुतों की आजादी और अभिव्यक्ति दोनों पर अतिक्रमण कर चुका है. चाहे वो कोइ ह्यूमेन राइट्स एक्टिविस्ट हों या पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाने वाले कश्मीरी स्टूडेंट्स. फिर से कहूंगा कि मुझ पर से देशद्रोह हटाना बेहतर है पर ये बहुत व्यक्तिगत राहत है. हालत में असल सुधार तभी आ पायेगा जब अंगरेजी क़ानून का हिस्सा रही ये धारा पूरी तरह ख़त्म कर कूड़ेदान में डाल दी जायेगी, जैसा कि गांधी और नेहरू चाहते थे और हमारा समाज वाकई में अभिव्यक्ति की आज़ादी के मायनों से रूबरू हो पायेगा. पर चांसेज कम हैं. आशंका यही है कि हर बार की तरह ये बहस सिर्फ घटना विशेष से शुरू होकर घटना विशेष पर ही ख़त्म हो जायेगी और न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर कोइ आम समझ बन पायेगी और न ही देशद्रोह के इस दमनकारी क़ानून को लेकर.
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