भारतीय समाज के सन्दर्भ में अभिव्यक्ति की आज़ादी और चार्ली हेब्दो

शार्ली हेब्दो पर हुए हमलों का हमारे देश में टीवी बहसों और सम्पादकीय आलेखों में पुरजोर विरोध हुआ. अभिव्यक्ति की आज़ादी की भी जी भर कर वकालत की गयी. कुछ कार्टूनिस्टों ने साहसी कार्टून्स भी बनाए जो दिखाते थे कि कलम बन्दूक से कहीं ज्यादा ताकतवर है और इसलिए फ्रीडम ऑफ़ स्पीच कभी हथियारों के सामने घुटने नहीं टेकेगी. भारत सरकार ने भी हमलों की निंदा की. फेसबुक और ट्विटर पर बहुतों ने अपने प्रोफाइल पिक्चर भी चेंज कर दिए. कई ने हैश टैग आई एम शार्ली का भी खूब इस्तेमाल किया. लेकिन भारत में सेंसरशिप के बढ़ते हुए मामलों को देखें तो ये विरोध बस एक तमाशा, ढोंग या एक नियमित औपचारिकता से बढ़कर कुछ नहीं है. भारतीय कार्टूनिंग के पितामह कहे जाने वाले शंकर पिल्लई के कार्टून हम एनसीईआरटी की किताबों से निकाल देते हैं. भारतीय कला के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एम एफ हुसैन देश छोड़ने पर विवश हो जाते हैं और वो विदेशी जमीन पर अपनी आख़िरी सांसें लेते हैं.

धर्म और जाति से जुड़े किसी भी मुद्दे को छूकर भी निकलने वाली हर एक फिल्म और किताब के खिलाफ लोग सडकों पर उतर आते हैं, पुतले जलते हैं, तोड़ फोड़ होती है. और ज़्यादातर मौकों पर पाबंदियां भी लगती हैं. फिर भी पूरी बेशर्मी से हम फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के समर्थन का दम भरते हैं और पेरिस हमलों का विरोध करते हैं. समझना मुश्किल है कि जब हम अपने सबसे शानदार कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं बचा सके तो किसी साधारण कलाकृति की आज़ादी के लिए भला क्या कर पायेंगे और कैसे. 

वज़ह है कि इस देश में कभी फ्री स्पीच को लेकर व्यापक समझ बन ही नहीं पायी है. बहस तब उठती है जब कहीं अभिव्यक्ति के दमन का कोई नया मामला सामने आता है और तब हम दोनों ओर की बातें रखते हैं. आस्थाओं की बात करते हैं, शांति की बात करते हैं, सीमाओं की बात करते हैं और बीच बीच में कला और आज़ादी की भी बात कर लेते हैं. हम दोनों ओर की बात इसलिए नहीं करते क्योंकि हम निष्पक्ष हैं, बल्कि ऐसा इसलिए होता है कि हम अभिव्यक्ति की आज़ादी से खुद भी कतई सहमत नहीं हैं. क्योंकि हम ये नहीं समझ पाते कि सीमित आज़ादी, दरअसल, थोड़ी ढील भरी विनम्र कैद के सिवाय कुछ भी नहीं है. पिंजरे का आकर बढ़ाना आज़ादी नहीं हो सकता. यकीन मानिए, हमने अपने कलाकारों को अच्छी तरह विश्वास दिला दिया है कि पूरी आज़ादी जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती. इसके आगे किसी क़ानून और धारा की ज़रुरत भी नही है. जब आज़ादी के दायरों को लेकर सामाजिक दृष्टिकोण ही संकीर्ण कर दिया जाए. तो फिर बहुत सारा काम सेल्फ सेंसरशिप के जरिये ही हो जाता है. बचा खुचा काम इस तरह के हमले पूरा कर देते हैं. कलाकार सहम जाते हैं कि अगर वो मुहम्मद का कार्टून बनायेंगे तो उन्हें मार दिया जाएगा. और ये गोली खाने का डर उन्हें रोकने के लिए काफी होता है. क्योंकि ये दुनिया उन कार्टूनों के हिसाब से नहीं चलती, जिनमे पेन्सिल को बन्दूक से ज़्यादा ताकतवर दिखाया जाता है. हाँ, पेन्सिल बन्दूक से निश्चित ही ज़्यादा ताकतवर है. लेकिन तभी तक जब तक वो निर्भीक है. बन्दूक का डर, मौत का डर नियम पलट देता है. और फिर हम उस समाज में जीने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जहां बंदूकें नियम तय करती हैं. 

और इसीलिये इस देश में इन हमलों के विरोध में बन रहे किसी भी कार्टून में मुहम्मद नहीं दिखते. बस बड़बोलापन दिखता है, भारतीय नेताओं के भाषणों की तरह. झूठी और सपनों की दुनिया दिखती है, मायानगरी की फिल्मों की तरह. शार्ली हेब्दो पर हमला करने वाले वो हत्यारे इसलिए नहीं हारे कि सारी दुनिया ने पेरिस हमलों की निंदा की. याद रखिये, निंदा कभी जीत को हार में नहीं बदलती. उनकी असल हार है, शार्ली हेब्दो का अगला कवर, जिस पर एक बार फिर मुहम्मद हैं. ये हिम्मत है. ये जज्बा है. ये जीत है. तार्किक रूप से देखें तो अगर हमले के बाद शार्ली हेब्दो मुहम्मद के कार्टून छापना बंद कर देती. तो इससे बेहतर था कि वो मैगजीन अब कभी न छपती. क्योंकि अपनी हार स्वीकार करने के बाद काम करना वाकई कठिन होता, लड़ाई वहीं ख़त्म हो जाती. शार्ली हेब्दो ने जो किया, वो गांधी का तरीका है, ठीक नमक सत्याग्रह की तरह साहसी, सपाट और अहिंसक. पर इस देश में ये कतई आसान नहीं है. गांधी का रास्ता आसान हो भी नहीं सकता. अगर आप कुछ भी ऐसा कहते हैं, जिससे आम जन मानस या किसी वर्ग विशेष की भावनाएं आहत हो जाएँ तो निःसंदेह आपको जेल जाने के लिए तैयार होना पडेगा. इस देश में जहां शायद कोई भी पुलिस और कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहेगा, ये भी विचारणीय है कि क्या एक आम भारतीय कलाकार की आर्थिक स्थिति इस लायक होती है कि वो एक अच्छे वकील को अफोर्ड कर सके. और फिर ऐसे में उसके पास जेल में सड़ने या सालों कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने के सिवाय कौन सा रास्ता बचता है. 

याद रखिये, अगर आप सिर्फ इन बारह हत्याओं के खिलाफ हैं तो ये कतई फ्री स्पीच का समर्थन नहीं है. हिंसा का विरोध और फ्री स्पीच का समर्थन दो अलग बातें हैं. हम अब तक हजारों साल पहले लिखी गयी धार्मिक किताबों के नियमों का न सिर्फ सम्मान करते हैं, बल्कि उन पर एक स्वस्थ बहस छेड़ने से भी घबराते हैं. हालिया टीवी डिबेट्स में भी लोग इन बूढ़ी किताबों और उनमे लिखे हुए नियमों को डिफेंड करते हुए नज़र आये. हमेशा ही फ्री स्पीच की हार तर्कों की हार होगी, और आस्था की जीत. 

तीन साल पहले कुछ किताबों से आंबेडकर का कार्टून हटाना इस दिशा में सबसे दुर्भाग्यशाली घटनाओं में से था. अपनी हर बात और हर सांस के साथ आंबेडकर को कोट करने वाले दलित नेता ये भूल गए कि सामाजिक समानता के लिए अपनी लड़ाई में आंबेडकर साहब ने बहुत बार निर्भीकता पूर्वक लोगों की आस्थाओं को चोट पहुचायी थीं और हिन्दू धर्म के आडम्बरों के खिलाफ खुल कर जंग छेडी थी. ये भी तय है कि बिना अभिव्यक्ति की आज़ादी के वो कभी ये लड़ाई मुकाम तक नहीं पहुचा पाते. ये ऐसा है कि गांधीवादी लोग गांधी के अपमान के विरोध में हथियार उठा लें. और फिर उस कार्टून में तो अपमानजनक तत्त्व ढूंढना भी साधारण मस्तिष्क के बस के बाहर की बात थी. एक तरफ हम फ्री स्पीच की बात करते हैं और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश का एक राजनेता हमलावरों के लिए ईनाम की घोषणा कर देता है. इसके पहले भी कुछ मुस्लिम राजनेताओं ने २००६ में डेनिश कार्टूनिस्टों के सर पर फतवा जारी किया था. और मुझे नहीं याद आता कि कभी वो इस आरोप में जेल गए हों या मुकदमों में घसीटे गए हों. स्वर्गीय बाल ठाकरे दक्षिण भारतीयों पर फब्ती कसते हैं, "लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ," मुसलमाओं को वो देश का कैंसर कहते हैं और इसके बाद भी कभी उन्हें अभिव्यक्ति की सीमाएं नहीं बतायी जातीं. लेकिन अगर एक आम लडकी फेसबुक पर उनकी मौत पर रखे गए बंद को 'ज़बरन' बता देती है तो उससे आस्थाएं भड़क जाती हैं और उसे रातों रात गिरफ्तार कर लिया जाता है. 

ऐसे इतिहास और वर्तमान के साथ भला हम कैसे शार्ली हेब्दो का समर्थन कर सकते हैं. क्या हमें वाकई आत्म समीक्षा करने की आवशयकता नहीं है. क्या ऐसा नहीं है कि हम में और उन आतंकियों में बस इतना ही फर्क है कि हमने गोलियां नहीं चलाईं. कलाकारों को मारा नहीं. बस उन्हें खामोश किया और सेल्फ सेंसरशिप के नए रास्ते ढूंढ निकाले जहां कला को खामोश करने के लिए गोलियों और बंदूकों की ज़रुरत ही नहीं पड़ती. सारा काम संविधान की कुछ धाराएं कर देती हैं, वो भी बड़ी खामोशी से. एकदम लोकतांत्रिक ढंग से.