सिनेमा, सेंसरशिप और फ्री स्पीच फिल्म फेस्टिवल

देश में गंभीर फिल्मों के न बनने का कारण सिर्फ बाज़ार की मजबूरियाँ ही नहीं बल्कि सेंसर बोर्ड की तानाशाही भी है. कोइ फिल्मकार नहीं चाहता कि उसकी सालों की मेहनत सेंसर बोर्ड की नापसंदगी की भेट चढ़ जाए और वो कहानी जिसे वो दुनिया को सुनाना चाहता था, सिर्फ उसकी टीम तक ही सिमट जाए और उसकी फिल्म ही एक कहानी बनकर रह जाए. कोइ प्रोड्यूसर या फाईनेंसर ऐसी फिल्म पर क्यों मेहनत और पैसे बर्बाद करना चाहेगा जिसके रिलीज होने पर भी संदेह हो. 

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस देश में गंभीर मुद्दों का ढेर होते हुए भी ज़्यादातर फिल्में बस लोगों को हसाने गुदगुदाने का काम करती हुई ही दिखाई पड़ती हैं. यानी हम तक आप तक बस वही कहानियाँ पहुचती हैं, जिनसे किसी को कोइ फर्क नहीं पड़ता. कोइ आहत नहीं होता, कोई डिस्टर्ब नहीं होता. और इस सबके बीच उन सब मुद्दों पर कोइ काम नहीं हो पाता, जिन पर वाकई होना चाहिए था.

हम अक्सर ये खबरें अखबार में पढ़ते हैं, फेसबुक पर भी लिखते हैं पर क्या इतना काफी है. क्या इस संवाद को इससे आगे ले जाने की ज़रुरत नहीं है. सेंसर बोर्ड चीफ पहलाज निहलानी कुछ शब्दों की एक लिस्ट जारी करते हैं, जिन्हें उनके आदेश पर सिनेमा में इस्तेमाल करने से रोक दिया जाता है. इन शब्दों में गे और लेस्बियन जैसे शब्द भी शामिल होते हैं. यानी समलैंगिकों को बराबरी का दर्ज़ा और अधिकार मिलना तो दूर की बात, उनकी बहस और उनकी कहानी को भी हम तक नहीं पहुचने दिया जाता. और जब वो चाहते हैं, प्रधानमंत्री की शान में एक घटिया सा वीडियो बनाकर फिल्म थियेटर्स में चलवा देते हैं.


यानी न सिर्फ ये फैसला हो जाता है कि हमें क्या नहीं देखना चाहिए, बल्कि ये भी तय हो जाता है कि हमें क्या देखना चाहिए. और इस सबके बाद भी हम चुप रहते हैं. कभी पलट कर नहीं पूछते कि फिल्मों को बैन करने, सीन्स काटने के पीछे की वज़ह क्या है. ये अधिकार उन्हें कैसे मिलता है कि हमारे बदले ये फैसला कर सकें कि हमें क्या देखना है और क्या नहीं. आखिर ये हमसे क्यों नहीं पूछा जाता, हमारी राय क्यों नहीं ली जाती. और क्यों हम स्कूली बच्चों की तरह सेंसर बोर्ड के हर एक फैसले को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं. क्या सिर्फ इसलिए कि ये फिल्में हमारी नहीं, मुट्ठी भर फिल्मकारों की हैं. क्या सिर्फ इसलिए हमें कोइ फर्क नहीं पड़ता. पर हम भूल जाते हैं कि इन फिल्मों में कहानियाँ तो हमारी हैं. मुद्दे तो हमारे हैं. और फिल्मों का इस देश पर गहरा असर है, इसलिए ये वाकई ज़रूरी बहस है और ये इतना मामूली मसला नहीं है, जिसे यूं ही इग्नोर किया जा सके.

तो आइये इस पर चर्चा करें, बहस करें और सेंसर बोर्ड के अस्तित्व पर सवाल उठाएं. इस 26 जनवरी को इस अनोखे फिल्म फेस्टिवल में हम इस संवाद को आगे ले जाने की कोशिश में है. जहां हम ऐसी तीन फिल्में देखेंगे जो सेंसर बोर्ड ने अब तक रिलीज़ नहीं होने दी हैं. और फिर इस पर चर्चा करेंगे कि इनमे ऐसा क्या है कि सेंसर बोर्ड नहीं चाहता कि ये रिलीज़ हों. इस पर भी चर्चा होगी कि अनसेंसर्ड फिल्में किसके लिए खतरनाक हो सकती हैं, हमारे-आपके लिए या फिर देश, धर्म और समाज के ठेकेदारों के लिए. तो क्यों न, संविधान का ये दिन आजादी के नाम करे, फिल्मों की आज़ादी के नाम, कला की आजादी के नाम, अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम. आखिर अपने अधिकारों के हक़ में आवाज़ उठाने के लिए इससे बेहतर दिन कौन सा हो सकता है.